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है चीख़ ममोलों की या रब हंगामा है या शहबाज़ों का / कांतिमोहन 'सोज़'

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है चीख़ ममोलों की या रब हंगामा है या शहबाज़ों का ।
इस लम्हा फ़लक के आँगन में जमघट है कई आवाज़ों का ।।

ये क़ौल लहू के अश्कों से कुछ और मुनव्वर होता है
बेकार है सारी आहो-बुका मक़सद है फ़क़त परवाज़ों का ।

फ़रहाद के वारिस क्या तुझको ये बात बतानी लाज़िम है
दीवार फ़राहम करती है आसार कई दरवाज़ों का ।

मंज़िल पे पहुँचनेवालों का पैग़ाम सुनाई देता है
अब एक हमें करना होगा अंजाम कई आग़ाज़ों का ।

सदियों ने उसे दीमक की तरह यकलख़्त शिकस्ता कर डाला
आख़िर कैसा भहराके गिरा वो दौर करिश्मासाज़ों का ।।

31-1-1988