भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

है जाना पहचाना-सा वो शीशा / देवी नांगरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है जाना पहचाना-सा वो शीशा
लगे है क्यों अजनबी-सा चहरा

ख़ुशी की किरणें भी छू न पाईं
उदासियों का घना अंधेरा

ये सोच की डालियों के पंछी
उड़े जो बेपर हआ अचंभा

न शम्अ जलती न ये पतिंगे
न होता जलना न ये जलाना

अमीर ग़ुरबत को जब ख़रीदे
तो कस्रे-ईमां है डगमगाता

गुनाह करके सज़ा न पाये
कि जिसने अपना ज़मीर बेचा