है दिखाता जो जमाना उसे क्यूँकर देखूँ / रंजना वर्मा
है दिखाता जो जमाना उसे क्यूँकर देखूं
अपनी आंखों से हसीं रात का मंजर देखूँ
अपनी आंखों पे यकीं मैं करूँ भी तो कैसे
दोस्त को हाथ मे थामे हुए ख़ंजर देखूँ
तू जो मिल जाये तो कह दूं कि चमन में आ जा
किस तरह पर तेरी आँखों मे समन्दर देखूँ
है न मस्जिद न शिवाला में न गुरुद्वारे में
तू है एहसास तुझे अपने ही अंदर देखूँ
औरतें सहतीं घुटन दर्द बेबसी बन्दिश
उनकी तकलीफ जरा दिल में उतर कर देखूँ
हैं सभी चाहते आसान फूल से रस्ते
क्यों न कांटों भरी राहों से गुजर कर देखूँ
रात की कोख में तारीकियों के तोहफ़े हैं
चाँदनी चाँद की अब रात में भर कर देखूँ
मूंद कर आँख जमाने से गुजर जाते जो
लोग जाते हैं कहाँ मैं भी तो मर कर देखूँ
नाम ले शम्मा का परवाने जला करते हैं
साँवरे मैं भी तेरे नाम को जप कर देखूँ