है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं / बिन्दु जी
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं।
कहा घनश्याम में उधौ कि वृन्दावन जरा जाना,
वहाँ की गोपियों को ज्ञान का तत्व समझाना।
विरह की वेदना में वे सदा बेचैन रहती हैं,
तड़पकर आह भर कर और रो-रोकर ये कहती है।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥1॥
कहा हँसकर उधौ ने, अभी जाता हूँ वृन्दावन।
जरा देखूँ कि कैसा है कठिन अनुराग का बंधन,
हैं कैसी गोपियाँ जो ज्ञान बल को कम बताती हैं।
निरर्थक लोकलीला का यही गुणगान गातीं हैं,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥2॥
चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,
उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,
तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥3॥
विटप झुककर ये कहते थे इधर आओ इधर आओ,
पपीहा कह रहा था पी कहाँ यह भी तो बतलाओ,
नदी यमुना की धारा शब्द हरि-हरि का सुनाती थी,
भ्रमर गुंजार से भी यही मधुर आवाज़ आती थी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥4॥
गरज पहुँचे वहाँ था गोपियों का जिस जगह मण्डल,
वहाँ थी शांत पृथ्वी, वायु धीमी, व्योम था निर्मल,
सहस्रों गोपियों के बीच बैठीं थी श्री राधा रानी,
सभी के मुख से रह रह कर निकलती थी यही वाणी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥5॥