है फ़ना का सन्नाटा, तीरगी के घेरों में / रमेश तन्हा
है फ़ना का सन्नाटा, तीरगी के घेरों में
ज़िन्दगी खनकती है, रौशनी के घेरों में।
पुर-फ़रेब उजाला है, आगही के घेरों में
साये से लपकते हैं रौशनी के घेरों में।
सिर्फ इल्मो-दानिश से शायरी नहीं होती
शायरी पनपती है, बे-ख़ुदी के घेरों में।
मिलना, फिर बिछड़ जाना, फिर बिछड़ के याद आना
ज़िन्दगी परेशां है, ज़िन्दगी के घेरों में।
ज़हल के अंधेरों को, काटना ज़रूरी है
ज़िन्दगी हो क्यों मौकूफ़ बे-बसी के घेरों में।
बे-करां ख़लाओं का, है सफ़र नसीब इसका
ज़िन्दगी मुकैयद है, ना-रसी के घेरों में।
इक सफ़र सराबों का, बनते मिटते ख्वाबों का
ज़िन्दगी अज़ल से है, तिश्नगी के घेरों में।
कायनात की हस्ती, इक फ़ज़ा-ए-सरमस्ती
जैसे रात पूनम की, चांदनी के घेरों में।
जीत कर खुदाई को, जो न कर सका हासिल
क्या उसे न मिल जाता, बन्दगी के घेरों में।
ज़िन्दगी फ़क़त है इक चल-चलाओ का मेला
ता-हयात रहती है, बे-घरी के घेरों में।
दू-ब-दू पहाड़ों के, दरमियाँ ख़ला जैसे
मौत एक वक़्का है ज़िन्दगी के घेरों में।
ज़िन्दगी में करने को, क्या से क्या न था 'तन्हा'
क्या मिला तुझे आखिर शायरी के घेरों में।