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है मिलन की यह घड़ी / विनीत मोहन औदिच्य

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रोशनी में हो नहाई तुम, चाँदनी की प्रभा-सी
मेघ की नभ में घटा सी है, कुछ छिटकी विभा भी
चंद्रमा को आज तुमने क्यों, मूक रह कर पुकारा
खो रहा वह भी सकल धीरज, शांत ढूँढे सहारा।

हो तड़पती काम आतुर तुम, नव वधू-सी लजाती
आँख अंजन डालकर काला,श्याम मुखड़ा सजाती
सेज पुष्पों की सजाई पर, कौन अब आ रहा है
मंद चल कर राह पर मादक, गंध- सा छा रहा है।

है मिलन की यह घड़ी सुन्दर, कान में कौन कहता
चिर प्रतीक्षा में तुम्हारी बस, नित्य सौरभ बहता
शुष्क से मेरे अधर प्यासे, चुप व्यथा सह रहे हैं
पाश में फिर मोह के बंधकर, नेत्र ये बह रहे हैं।

आज प्रियतम पास आकर तुम, आलिंगन में समाओ।
चूम करके अंग मेरे सब, रात्रि उत्सव मनाओ।।