भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

है / कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


‘है’
जो अलग है
अतीत से कटा
भविष्य से कटा
अकेला
पूर्ण
स्वयंजन्मा
स्वयंजीवी
मौलिक
अपूर्व
न पिता,
न पुत्र,
न वंशज,
निपूत
न गति है
न प्रगति
न भाव
न भाषा
न रंग
न रूप
ऐसा ‘है’
न कहीं था
न कभी था
न कहीं है
न होगा
न मेरे पास
न किसी के पास
नमस्कार
इस ‘है’ को
जो नहीं है
नमस्कार उनको भी सबको
जो नहीं ‘है’ को
स्वीकारते हैं-
अस्वीकारते हैं

रचनाकाल: २७-१०-१९६७