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हों, जो सारे दस्तो-पा हैं ख़ूं में नहलाए हुए / मजरूह सुल्तानपुरी

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हों, जो सारे दस्तो-पा हैं ख़ूं में नहलाए हुए
हम भी हैं ऐ दिल ! बहाराँ की क़सम खाए हुए

देख अब्रे-जंग के दामन को उलझाए हुए
पेच खाते है फ़िज़ा में हाथ झुँझलाए हुए

ख़ब्ता है ऐ हमनशीं अक़्ले-हरीफ़ाने-बहार
है खिज़ां उनकी उन्हें आईना दिखलाए हुए

क्या है ज़िक्रे-आतिशो एटम कि ग़द्दाराने-गुल
मारते हैं हाथ अंगारों पे घबराए हुए

काँपकर सर से ज़मीं पर गिर पड़ा ख़ुसरो का ताज
बढ़ रहा है तेशाज़न कोहे-गिराँ ढाए हुए

ज़िन्दगी की क़द्र सीखी शुक्रिया तेग़े-सितम
हाँ हमीं थे कल तलक जीने से उकताए हुए