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होने न होने के बीच / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
इतनी महान बहसों
शब्दों-सूक्तियों
नारों-विज्ञापनों
मत-अभिमत के बाद भी
कितना कुछ छूट जाता है
अनकहा-अनछुआ
हमारे होने और न होने के बीच फैले
अनंत इस वितान में
महान-मुखर शब्दों
समृद्धियों-उपलब्धियों
के खोखल में
क्यों बेबसी-बेचैनियां
बना लेती हैं रहने की जगह
हमारे होने न होने के बीच
स्थगित अंधेरे तलघरों में
क्यों जुगनुओं की तरह
कौंधती रहती हैं
हमारे अनकहे की परछाइयां
और इन्हीं परछाइयों को
क्यों हम जीवन भर
संगीत की किसी धुन की तरह
अपने ही भीतर
गाते-गुनगुनाते रह जाते हैं