होलिका पूजन / कल्पना लालजी
कहा गया मुझसे होली के अवसर पर
हास्य कवि सम्मलेन में कुछ सुनाना है
मैंने सोचा यह क्या मुसीबत है
कहा होता लोगों को रुलाना है
वो आसान होता –वो आसान होता
क्योंकि लोगों को रुलाना बहुत आसान है
रुलाना जितना आसान है हँसाना उतना ही मुश्किल
सोचती हूँ
मंहगाई से बुझे इन चेहरों पर हंसी कहाँ से लाओ
क्या करूँ मैं कैसे इन्हें खिलखिलाकर हँसाओ
फिर भी कोशिश की खिलखिलाहट न सही
एक मुस्कान ही ले आऊ
परन्तु
यहाँ भी असफलता ने ही कदम चूमे
झूठी आशाओं के सहारे शब्द व्यर्थ ही घूमे
यहाँ बैठे लोगों के चहरों पर हंसी कहाँ है
उखडती इन सांसों में वो पहली सी खुशी कहाँ है
साफ़ दिखता है दिखावा है झूठी मुस्कान का लेबल है
जैसे बासी पकवान टेबल पे सजा रखा हो
तब भी
मन न माना शब्दों का चयन करने लगी
शांत भाव से एक मन हो विषय चुनने लगी
पर
ज्योंही होली के लाल रंग पर दृष्टी पड़ी
सर्वत्र हो रहे हत्याकांड पर दृष्टि गड़ी
मन में सोचा मानवता ने तो बड़ी प्रगति कर ली
वसुधैव कुटम्बकम ने जातिवाद की दीवार ही गिरा दी
होली का त्यौहार अब केवल हिंदू ही नहीं मना रहे क्योंकि
आज सर्वत्र विश्व में इसी त्यौहार का बोलबाला है
हर चेहरा इसी लाल रंग में रंग डाला है
हम कितने पीछे रह गए हैं वो कितने आगे बढ़ गए हैं
हम आज भी बनावटी लाल रंगों से होली खेलते हैं
परन्तु मानवता के ये पुजारी मानव के
लहू से ही होली पूजते है