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होली-12 / नज़ीर अकबराबादी

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होली की रंग फ़िशानी से है रंग यह कुछ पैराहन<ref>वस्त्र, लिबास</ref> का।
जो रंगारंग बहारों में हो सहन चमन और गुलशन का।
जिस खू़बी और रंगीनी से गुलज़ार खिले हैं आलम में।
हर आन छिड़कवां जोड़ों से है हुश्न कुछ ऐसा ही तनका।
ले जाम लबालब भर दीना फिर साक़ी<ref>शराब पिलाने वाला</ref> को कुछ ध्यान नहीं।
यह साग़र<ref>शराब का प्याला, चषक</ref> पहंुचे दोस्त तलक या हाथ लपक ले दुश्मन का।
हर महफ़िल में रक़्क़ासों<ref>नर्तक, नाचने वाले</ref> का क्या सहर<ref>जादू, जागृति</ref> दिलों पर करता है।
वह हुश्न जताना गानों का, और जोश दिखाना जीवन का।
है रूप अबीरों का महवश<ref>आकृति वाला</ref> और रंग गुलालों का गुलगूं<ref>गुलाब</ref>।
हैं भरते जिसमें रंग नया, है रंग अजब इस बर्तन का।

उस गुल गूं ने यूं हम से कहा, क्या मस्ती और मदहोशी है।
ना ध्यान हमें कुछ चोली का, ना होश तुम्हें कुछ दामन का।
जब हमने ”नज़ीर“ उस गुलरू से यह बात कही हंसकर उस दम।
क्या पूछे है, ऐ! रंग भरी है मस्त हसीना फागुन का।

शब्दार्थ
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