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हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है।
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है।

जिसे ढो रहे हैं मुफ़्लिस है वो पाप उस जनम का,
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है।

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा,
नहीं लेखनी ये पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है।

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक़,
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है।

वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह चाहते हैं,
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है।