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हो धरा यह शांत शीतल / अमरेन्द्र
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हो धरा यह शांत शीतल,
मानसर का सौम्य शतदल !
बाँसवन झूमे पवन, वन,
वट उठे गजराज जैसा,
सागवानों का यह जंगल
राम के ही राज जैसा !
आम्रवन से गंध फूटे,
चन्दनों के पाँव थिरके,
इस तरह झुरमुट दिखे कि,
ज्यों, घटा छाई हो घिर के!
जिस तरह लहरें थिरकतीं,
उस तरह से हो नदी-तल !
क्या हुआ सावन नहीं है,
क्या हुआ मधुमास रूठा,
क्या हुआ कि शिशिर सोया
ग्रीष्म का है भाग्य फूटा ।
खिल उठो तुम साल-जूही,
खिल उठो कचनार-कुवलय,
खिल उठो सरसों सुवर्णा,
केतकी की हो विजय-जय !
चैकड़ी भरता रहे जग,
वन सघन में मुग्ध चीतल !