भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी / नवीन सी. चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी
अँधेरों से लड़ती रही रौशनी
क़तारों से क़तरे उलझते रहे
ज़मानों को मिलती रही रौशनी
इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी
किसी नूर की छूट है हर चमक
ज़मीं पर भला कब उगी रौशनी
अँधेरों पे दुनिया का दिल आ गया
फ़ना हो गई बावली रौशनी
सितारों पे जा कर करोगे भी क्या
जो हासिल नहीं पास की रौशनी
उजालों में भी सूझता कुछ नहीं
तू रुख़सत हुआ, छिन गई रौशनी
गमकती-चमकती रही राह भर
परी थी वो या संदली रौशनी
वो घर, घर नहीं; वो तो है कहकशाँ
जहाँ तन धरे लाड़ली रौशनी
बहुत जा रहे हो वहाँ आजकल
तो क्या तुम पे भी मर मिटी रौशनी
ये चर्चा बहुत चाँद-तारों में है
मुनव्वर को किस से मिली रौशनी