भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो हल्ला है होली है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़े रंगों के गुब्बारे हैं,
घर आ धमके हुरयारे हैं।
मस्तानों की टोली है,
हो-हल्ला है, होली है।

मुंह बंदर-सा लाल किसी का,
रंगा गुलाबी भाल किसी का।
कोयल जैसे काले रंग का,
पड़ा दिखाई गाल किसी का।
कानाफूसी कुछ लोगों में,
खाई भांग की गोली है।

ढोल-ढमाका ढम-ढम-ढम-ढम,
नाचे-कूदे फूल गया दम।
उछल रहे हैं सब मस्ती में।
शोर-शराबा है बस्ती में।
कुछ बच्चों ने नल पर जाकर,
अपनी सूरत धो ली है।

छुपे पेड़ के पीछे बल्लू,
पकड़ खींचकर लाए लल्लू।
समझ गए अब बचना मुश्किल,
लगे ज़ोर से हंसने खिल-खिल।
गड़बड़िया ने उन्हें देखकर,
रंग की पुड़िया घोली है।

हुरयारों की बल्ले-बल्ले,
गुझिया, लड्डू और रसगुल्ले।
मजे-मजे से खाते जाते,
रंग-अबीर उड़ाते जाते।
द्वेष राग की गांठ बंधी थी,
आज सभी ने खोली है।