भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
‘अस्ल मुहब्बत : भाग 1’ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
Kavita Kosh से
मैं मानता हूँ कि तुम एक गहरा दरिया थी,
जिसमें मैं डूब न पाया, कभी!
मैं मानता हूँ कि मैं भी ऊँचा आसमां था,
जिसके शीर्ष को तुम छू न पायी, कभी !
मैं मानता हूँ तुम सर्दियों की थरथराती,
सर्द हवाओं से कम न थी।
मैं मानता हूँ कि मैं भी बादलों की
सफेदी -सा सिर्फ धुआँ ही था॥
फिर भी,
सर्दियों की गुनगुनी धूप की तरह,
कोहरे को हटाता आफ़ताब-सा मेरा दिल !
तुम्हें अपने आगोश में लेकर,
मेरी बाहें बेपनाह सकूं तो देती थी।
नादान, बड़ी नासमझ निकली तुम,
हां! यही 'अस्ल मुहब्बत' थी ॥॥॥