‘अस्ल मुहब्बत : भाग 15’ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
मैनें ख़ुद से भी आईने में,
इतनी बातें नही की थी कभी !
जितनी बातें मैं उन लम्हाेेंं में
तुम से, किया करता था !!!!!!!
दिन में,
किसी न किसी मोड़ पर तुम,
यूँ मुझसे टकरा ही जाती थी
और रात को ख़्वाबों मे अकसर!!
तुम्हारी मौशिकी में, कुछ का,
कुछ मैं, कर गुज़रने लगा था !!
तुम मुझमें सर्द हवा सी बह रही थी,
और मैं ग्लेशियर-सा जमने लगा था!
मैं शायर तो था ये मालूम था मुझे लेकिन
मुझे 'इश्क़' ने क्या से क्या बना दिया था !!
मेरी नज़र में
अगर कोई सबसे बेसुरा सिंगर था
तो वह, मैं "ख़ुद" था, लेकिन !!
आशिकी में महबूबा को,
लोहरी भी सुनानी होती हैं
ये मुहब्बत करके ही जाना! मैंने!
तुम मुझसे जुड़ चुकी थी हर तरह से
और अलग होना भी नहीं चाहती थी
शायद!!
ख़ुद भी टूट रही थी मुझको भी तोड़ रही थी
उस 'पहली मुहब्बत' को छोड़ना नही चाहती थी!
शायद!
फोन पर तुमने इज़हार किया था
जबाव -ए- इश्क़ का ! ! !
पूरी काय़नात क्या चाहती थी
ये मुझे मालूम नही था मगर !!
मैं तुम्हारी तसल्ली चाहता था
तुम क्या चाहती थी मैं जानता था
मैं क्या चाहता था तुम भी जानती थी
फिर भी,
तुम्हारे दिल में, न जाने
कैसी ये ज़ुल्मत थी !!!!
नादान बड़ी नासमझ निकली तुम
हां! यही "अस्ल मुहब्बत" थी !!