‘अस्ल मुहब्बत : भाग 21’ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
तुम पुरवाई सी चली आती थी मुझ तक,
मैं पछुआ हवा के झोंके सा मुड़ जाता था।
इक उम्र से तुम,सहरा'ओं सी प्यासी थी जहाँ
मैं बादल बनकर, वहीं बरसना चाहता था !!
एक तमन्ना, एक कशिश, एक एहसास रूमानी
रोज़ हमारे दरमियाँ उभरती एक ताज़ा कहानी!
लोग वही दुनिया वही, वही वक़्त का हेर-फेर है,
'अस्ल मुहब्बत' का मैं राजा,
'अस्ल मुहब्बत' की तुम रानी
एक अहसास क्या अभी भी गुदगुदाता है तुम में,
आज भी पानी के बुलबुले सा जो बुदबुदाता है मुझमें!
"जब सर्दियों की उन सर्द शामों में,
तुम चुपके से आकर बैठ जाती थी पास मेरे,
और चुपके से,मेरे बायें हाथ की बन्द मुट्ठी को
अपने दायें हाथ की नर्म उंगलियों से, होले होले खोलकर!!
फिर, ज़ोर से जकड़ लेती थी उंगलियों को उंगलियों से!!
यों मानों दहकती हुई लकड़ियों से निमासी - निमासी भाप
दो ज़िस्मों में बह रही हो !"
एक नदी जो उस वक़्त प्यार से सींची गयी थी !!
तुम इक लकीर-सी मुझ पत्थर पे खींची गयी थी।
क्योंकि,
तब लगता था जैसे,
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अमिट, ये हमारी मुहब्बत थी!
नादान, बड़ी नासमझ निकली तुम
हां, यही 'अस्ल मुहब्बत' थी !!!!