‘अस्ल मुहब्बत : भाग 8’ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
कुछ महीनों बाद,
अचानक पहली दफ़ा जब तुमने कहा,
कि, "क्या, हम दोस्त बन सकते हैं?"
त'अज्ज़ुब नही हुआ? पर हुआ,
त'अज्ज़ुब इस बात पर कि तुम,
अब मायूस और बेतरतीब न रही थी,
'तुमने मेरी तरह..लबों पर मुस्कान को
ठहराव देना सीख लिया था !'
तुम्हें मालूम है जब तुम खुश होना चाहती थी!
शायद, तुम खुश नहीं थी तुम्हें किसी की जरूरत थी!!
तभी तुमने कहा कि हमें कुछ वक्त साथ गुजारना चाहिए
उस पहली हसीन मुलाक़ात में 'हम' चार घंटे साथ थे!
मैंने सारी जिंदगी के चुनिंदा 'अहसास'
तुम्हारे हर पल को बेहतरीन बनाने में
लगा दिए'!
और मुझे बखूबी याद है कि, ,
मैं अन्दाज-ए-बयां करता गया
और तुम हां-मेें-हां मिलाती रही!
क्योंकि ये बिल्कुल नया था,
मेरे लिए भी, शायद!
तुम्हारे लिए भी !!
"तुम्हें याद है कि जब तुमने उठते वक़्त,
मेरा हाथ पकड़कर, अपने पास वहीं
बैठा लिया था मुझको"
शायद! तुम्हें कुछ वक़्त चाहिए था
कुछ और कहने के लिए मुझसे !!!
और मैं था बिल्कुल अंजान तुमसे!
काश! ये वक़्त यहीं ठहर जाए!
काश! हर कोई आप जैसा हो जाए!
मुझे इतना खुश रक्ख़े, इतना प्यार करे!
काश! मेरा 'प्यार' भी आप जैसा हो जाए!
और तुमने ये कहते हुए मेरे कन्धे पर,
अपना सिर टिका दिया था!!!!!!!!!
"तुम कुछ खोना चाहती थी कुछ पाना भी चाहती थी
मेरे कन्धे पर शायद! जी भर के रोना भी चाहती थी" !!
मैं 'दोस्त' था तब तक और तुम्हारा सकून चाहता था!
और तुम किसी 'और' की सूरत में "मेरा इश्क़"
तभी तुमने कहा कि,
काश! ये हमारी मुहब्बत होती।
नादान बड़ी नासमझ निकली तुम,
हां! यही तो "अस्ल मुहब्बत" थी !