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‘लौट कर आऊंगा’ कोई कह गया / अजय अज्ञात

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‘लौट कर आऊंगा’ कोई कह गया
मैं उसी की राह तकता रह गया

जिस के साये में हमारे दिन कटे
वो शजर अब ठूंठ बन कर रह गया

हम ज़रा से घाव से बेचैन हैं
आसमां चुपचाप क्या-क्या सह गया

यूँ लगा प्राची का सूरज देख कर
धमनियों का रक्त जैसे बह गया

एक पल में मेरे ख़्वाबों का महल
भोर होते भरभरा कर ढह गया

फूल का मकरंद पी कर भी ‘अजय’
इक भ्रमर प्यासे का प्यासा रह गया