’सनस्टोन’ के कुछ अंश / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / ओक्ताविओ पाज़
मैं करता हूँ विचरण तुम्हारी देह में, सृष्टि की तरह,
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मेरी इच्छाओं के रंग पहने
मेरे विचारों की तरह खुली, तुम जाती हो अपने रास्ते,
मैं करता हूँ विचरण तुम्हारी आँखों में, समुद्र की तरह,
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मैं करता हूँ विचरण तुम्हारी कोख में, तुम्हारे सपनों की तरह,
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मैं करता हूँ विचरण तुम्हारे नख-शिख में, नदी की तरह,
मैं करता हूँ विचरण तुम्हारी देह में, जंगल की तरह,
एक पहाड़ी मार्ग की तरह जो समाप्त होता चट्टान में,
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प्रेम करना है संघर्ष करना, दो के चुम्बन से
बदलता है संसार, इच्छाएँ लेती हैं देह रूप,
विचार लेते हैं देह रूप, उग आते हैं पंख,
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बदलता है संसार
जब दो झाँकते और देखते हैं एक-दूसरे में;
प्रेम करना है अपने नामों को प्रकट होने देना:
हेलोईज़ ने कहा —मुझे हो जाने दो तुम्हारी वेश्या”,
किन्तु उसने विधि के अनुसार
बनाया उसे अपनी पत्नी, और उन्होंने दिया उसे पुरस्कार
बंध्याकरण का,
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मैं लौटता हूँ वहाँ
जहाँ से हुआ था शुरू, मैं खोजता हूँ तुम्हारा चेहरा,
मैं शाश्वत सूर्य तले चलता हूँ
स्वनिर्मित मार्गों पर, और मेरे बाजू में
तुम चलती हो वृक्ष की तरह, तुम चलती हो नदी की तरह,
और बात करती हो मुझसे नदी के प्रवाह की तरह,
तुम उगती हो मेरे हाथों में गेहूँ की तरह,
तुम स्पन्दित हो मेरे हाथों में गिलहरी की तरह,
तुम उड़ती हो हज़ार पक्षियों की तरह,
है तुम्हारी हँसी समुद्र के फुहार की तरह,
तुम्हारा सिर है मेरे हाथों में सितारे की तरह,
यह दुनिया फिर से हो जाती है हरी
जब खाते हुए नारंगी मुस्कुराती हो तुम,
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दरवाज़ा अस्तित्व का : अपने होने को करो उजागर
और जागो, सीखो हो जाना, दो आकार
अपने चेहरे को, करो विकसित अपना रंग-रूप,
हो तुम्हारा चेहरा ऐसा कि मैं देखूँ
देखने को अपना चेहरा,
देखने को अपना जीवन इसकी मृत्यु तक,
समुद्र, रोटी, चट्टान और झरने का चेहरा,
स्रोत जहाँ हमारे सभी चेहरों का
हो जाता है विलय नामहीन चेहरे में,
एक चेहराहीन अस्तित्व,
अस्तित्वों का एक अकथनीय अस्तित्व ...
अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’