(पर) लोक-कथा / गीत चतुर्वेदी
एक समय की बात है । एक बीज था । उसके पास एक धरती थी । दोनों प्रेम करते थे । बीज, धरती की गोद में लोट-पोट होता,हमेशा वहीं बने रहना चाहता । धरती उसे बांहों में बांधकर रखती थी और बार-बार उससे उग जाने को कहती । बीज अनमना था । धरती आवेग में थी । एक दिन बरसात हो गई और बीज अपने उगने को स्थगित नहीं कर पाया । अनमना उगा और एक दिन उगने में रम गया । अन्यमनस्कता भी रमणीय होती है । ख़ूब उगा और बहुत ऊँचा पहुँच गया। धरती उगती नहीं, फैलती है । पेड़ कितना भी फैल जाए, उसकी उगन उसकी पहचान होती है ।
दोनों बहुत दूर हो गए । कहने को तो जड़ें धरती में रहीं, लेकिन जड़ को किसने पेड़ माना है आज तक? पेड़ तो वह है जो धरती से दूर हुआ । उससे चिपका रहता, तो घास होता ।
पेड़ वापस एक बीज बनना चाहता है । धरती अपना आशीष वापस लेना चाहती है। पेड़ को दुख है कि अब वह वापस कभी वही एक बीज नहीं बन पाएगा । हाँ,हज़ारों बीजों में बदल जाएगा। धरती ठीक उसी बीज का स्पर्श कभी नहीं पा सकेगी। पेड़ उसके लिए महज़ एक परछाईं होगा ।
जीवन में हर चीज़ का विलोम नहीं होता । रात एक अँधेरा दिन नहीं होती, और दिन एक उजली रात नहीं होता । चाँद एक ठँडा सूरज नहीं, और सूरज एक गरम चाँद नहीं है । धरती और आसमान कहीं नहीं मिलते, कहीं भी नहीं ।
मैं पेड़ के बहुत क़रीब जाता हूँ और उससे कहता हूँ, सुनो, तुम अब भी एक बीज हो । वही वाला बीज । क़द के मद में मत आना। तुम अभी भी उगे नहीं हो तुम सिर्फ़ धरती की कल्पना हो
सारे पेड़ कल्पना में उगते हैं । स्मृति में वे हमेशा बीज होते हैं