भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

107 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हीर वत के<ref>मुड़ के</ref> बेलयों घरीं आई मां बाप काजी सद लयांवदे ने
दोवें आप बैठे अते वि काजी अते साहमणे हीर बहांवदे ने
बची हीर तैनूं असीं मत देंदे मिठी जबान नाल समझांवदे ने
चाक चोबरां नाल ना गल कीजे एह मेनहती केहड़े थाउं दे ने
चरखा डाहके आपने घरीं बहिए सुघड़ गाउं के जी परचांवदे ने
लाल चरखड़ा डाहके छोप पाईये कहीए सोहने गीत झनाब दे ने
नीवीं नजर हया के नाल रहिये तैनूं सभ सयाने फरमांवदे ने
चूचक सिआल होरी हीरे जाणनी ए सरदार ते पंच गरांव दे ने
शरम मापियां दी वल धयान कीजे शानदार एह जट सदांवदे ने
बाहर फिरन ना सोंहदा कवारियां नूं अज कल लागी घर आंवदे ने
ऐथे वयाह दे सब समान होये खेड़े पये बना<ref>तरकीब</ref> बनांवदे ने
वारस शाह मियां चंद रोज अंदर खेड़े जोड़ के जंझ लयांवदे ने

शब्दार्थ
<references/>