भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
168 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
तुसीं एसदे खयाल ना पवो अड़ियो नहीं खटी कुझ एस सपार उतों
नी मैं जीउंदी एस बिन रहां कीकूं घोल घोल घती रांझे यार उतों
झलां बेलयां विच एह फिर भौंदा सिर वेचदा मैं गुनाहगार उतों
मेरे वासते कार कमांवदा ए मेरी जिंद घाती एहदी कार उतों
तदों भाबियां साक ना बणदियां सन जदों सुटया पकड़ पहाड़ उतों
घरों भाइयां चा जवाब दिता एहना भूई दीआं पतियां चार उतों
ना उमैद हो के वतन छड तुरया मोती तुरे जिउं पट दी तार उतों
बिना मेहनतां मसकले<ref>रेगमाल जैसा कागज</ref> लख फेरो नहीं मोरचा<ref>जंग</ref> जाए तलवार उतों
एह मेहणा लहेगा कदी नाहीं एस सियालां दे सभ प्रवार उतों
नढी आखसन झगड़दी नाल लोकां एस सोहणे भंबड़े<ref>अनोखे</ref> यार उतों
वारस शाह समझा तूं भाइयां नूं हुण मुड़े ना ला लख हजार उतों
शब्दार्थ
<references/>