2007 / कात्यायनी
आँधी से उखड़े पेड़ की औंधी जड़ों की तरह
प्रस्तुत होता है इतिहास.
भविष्य के साथ मुलाकात का क़रार
रद्द कर चुके हैं वे लोग
जिनका समाजवाद बाज़ार के साथ
रंगरलियाँ मना रहा है
और आए दिन नए-नए
नन्दीग्राम रच रहा है।
बमवर्षा से नहीं
सौम्य शान्ति, आप्त वचनों और वायदों के हाथों
तबाह हो चुका
दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र
एक लंगर डाले जहाज़ की तरह
प्रतीक्षा कर रहा है।
बीस रुपए रोज़ पर गुज़र करते
चौरासी करोड़ लोगों के हृदय
अपहृत कर छुपा देने की
नई-नई तरक्रीबें सोची जा रही हैं।
सुधी जनों से छीन ली गई हैं उसकी स्मृतियॉं,
भाषा बन चुकी है
व्यभिचार की रंगस्थली,
भविष्य स्वप्न भुगत रहे हैं
निर्वासन का दण्ड
और अपने जीवन की कुलीनता-शालीनता-कूपमण्डूकता में
धुत्त, अन्धे और अघाए लोगों के बीच
तुमुल ध्वनि से प्रशंसित हो रही है
वामपन्थी कवियों की कविताएँ।