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38/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !
चाही-अनचाही
कच्चे मनवाली
उथले तनवाली पीड़ाओं से
चोटिल,
और दरारित होकर भी
बैठे हैं ऐसे
जैसे उलझी-उफनाती
लहरों से तट का मौन तुड़ाना मुश्किल !
सुना हुआ है-
मौसम-मौसम
खून बदल जाया करता है
इसीलिए
बदरंग
रंग सब पीड़ाओं को,
सांसों में इस तरह घुलाया
जैसे दूध और पानी अलगाना मुश्किल !
जाने इनसे
किस मुहूर्त में
गठबन्धन हो गया हमारा
अनगिन
मन्वन्तर जी आए
नहीं जानते
और अभी कितने जीने हैं
ये सतर्वती पीड़ाएँ
ऐसे साथ चला करती हैं
जैसे सूरज से धूप छुड़ाना मुश्किल !
अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !