भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
438 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
रांझा वांग ईमान शराबियां दे जुदा होयके पिंड थी बाहर रहया
नैनां तेरयां जट नूं कतल कीता चाक होय के खोलया चार रहया
अंत कन्न पड़वा फकीर होया घत मुंदरां विच उजाड़ रहया
ओहनूं वतन ना मिले तूं सतर खाने थक टुटके अंत नूं हार रहया
तैनूं चाक दी आखदा मुलक सारा एवें उसनूं मेहना मार रहया
शकरगंज मसऊद मैंदूद वांगूं ऊहना नफस<ref>तृष्णा</ref> दी हिरस नूं मार रहया
सिधा नाल तवकली<ref>भरोसा</ref> ठल बेड़ा इके विच डुबा इके पार रहया
शब्दार्थ
<references/>