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47 / हरीश भादानी

सुर्खिया
जो सपने दे गई हमको
वे चिमनियांे के धुएँ का
जहर पीकर मर गए है,
जिन्हें हम
धूप के कफ़न में बाँध
ढ़ोए जा रहे हैं,
भीड़ भी ऐसे ढ़केले जा रही हमको
कि बोझ का अहसास भूले जा रहे हैं;
हमें डर है
कि हम इन खूबसूरत लाशों को
दफ़न करने
कहीं बैठे रूके तो,
उम्र का आँचल पकड़
कमज़ोरियाँ रोने लगेंगी,
और पाँवों की बिवाइयों का खून
दाग बन कर फैल जाएगा,
और माँ के मोह जैसी दूरियाँ-
हमें ठहरा हुआ सा देख
पथरा जायँगी,
मर जायँगी,
यह सही है कि
कच्चे मांस वाली ये लाशें
सड़ने लगी हैं
और बदबू से
उल्टी दिशाओं में रहते
गुलाबों की महक से
सांस लेने के आदी
ज़माने का दम घुअ रहा है,
हम क्या करें
मज़बूर है हम भी
उमर की
आखिरी इकाई तक
कि दूरियों को गोद देकर ही रहेंगे हम
सभी सपने
जिन्दा नहीं, गुर्दा सही !
सुर्खियाँ जो सपने दे गई हमको !