भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

482 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हीर हो रूखसत<ref>विदा होना</ref> रांझे यार कोलों आख सहतिए मता पकाइए नी
ठूंठा भन्न फकीर नूं कढया ई किवें उसनूं खैर भी पाइए नी
वहन लोहड़े पया वेड़ा शोहदयां<ref>गरीब</ref> दा नाल करम दे बनड़े लाइए नी
मेरे वासते उसने लए तरले किवे उसदी आस पुचाइए नी
तैनूं मिले मुराद ते असां माही दोवे आपने यार हडाइए नी
होया मेल जों चिरी विछुनयां दा यार रजके गले लगाइए नी
बांकी उमर रंझेटेदे नाल जालां जिवें मेरा भी मेल मिलाइए नी
जीउ आशकां दा अरश हक दा ए किवे उसनूं ठंड पवाइए नी
एह जोवना ठग बाजार दा ए सिर किसे दे एह चड़ाइए नी
शैतान दियां असीं उसताद रन्नां कोई आ खां मकर<ref>फरेब</ref> फैलाइए नी
बाग विच ना जांदियां सोहदियां हां किवें यार नूं घरी लिआइए नी
गल घत पला मुह घाह लै के पैरो लग के पीर मनाइए नी
वारस शाह गुनाह दे असी लदे चलो कुल तकसीर<ref>कसूर</ref> बखशाइए नी

शब्दार्थ
<references/>