भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
64 / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
बिना मां बाप की बेटी
यह खूबसूरत भूख-
सुबह से पहले जगा करती,
सुगुनिये-सी
सूँघती फिरती है
ठौर-ठौर, ठांव-ठांव,
बेहया धूप-सी नचती,
रूका करती नीची छतों वाली
टाट से ढकी दहरियों पर;
गहराइयों से उठ-उठ
दीवारें कुतरती,
खारे झागवाली
सीलन से धसकती गृहस्थी में
यह धीरज के अटकन लगाती,
यह भूख-
घर की लाज के आगे
जवानी के करतब दिखाती,
मज़मे लगाती,
और हम-
अघोरियों के लिये इंधन बना
चिमनियों से धुँआ उठा
झुलसे हुए
घर लौटते हैं,
आदमी हैं-
जीना है हमें भी !
इसलिये
दुखती-खिसकती
हड्डियों के जोड़
मज़बूरियों के नाम
रोटियों की रिश्वत के
दो-चार टुकड़े
फेंक देते हैं इस भूख के आगे
कि सांझ-सी
थकी-सी ढरक जाये,
थोड़ी देर के लिये ही
रात-सी, मरी-सी लेट जाये !