66 / हरीश भादानी
दिन ब दिन
यह भूख
बदतमीज़ होती जा रही है !
हर सुबह,
हर साँझ
कुंडी खटखटाती है,
यह सर पटकती,
शोर करती है
और घर की खोखली कमज़ोरियाँ
इसके समर्थन में नारे लगाती हैं,
झण्डे उठाती है;
कुआँरी
माँ के पाप जैसे ये नंगे अभाव
जिनको हमने
अपनी लाज से ढाँपा,
बदनाम हो-हो कर दुलारा,
जिन्दगी जीना सिखाया
आज से बुझदिल
हमारी आस्थाओं को छलने लगे हैं
कोहेनूर से ईमान को
नीलाम करने पर तुले हैं
और इनकी
सर्पिणी-सी चाह
दिन-ब-दिन
बेसब्र होती जा रही है;
कम उमर वाले
मौनी ऋषि से
खूबसूरत से आँसू हमारे
जिन्हें मन के
तपोवन में रहना सिखाया
दूर आँखों से रहना बताया
आज वे ही
पीर की मनुहार गाने जा रहे हैं
बिखरे जा रहे हैं
और यह पीड़ा
जिसे सती समझे थे हम
दिन-ब-दिन
निर्लज्ज होती जा रही है !
दिन-ब-दिन
यह भुख
बत्तमीज़ होती जा रही है !