8:10 का जहाज़ / जमाल सुरैया / निशान्त कौशिक
आवाज़ में क्या है तुम्हारी, जानती हो ?
किसी बाग़ के बीचोंबीच होने का एहसास
एक रेशमी, नीला ठण्ड में खिलने वाला फूल
सिगरेट जलाने के लिए ऊपरी तल्ले पर चढ़ रही हो
आवाज़ में क्या है तुम्हारी, जानती हो ?
नींद से कोसों दूर जीती-जागती तुर्की ज़ुबान
अपने काम से नाख़ुश हो
शहर भी तुम्हें रास नहीं आता
एक आदमी अख़बार में तह लगाता है
आवाज़ में क्या है तुम्हारी, जानती हो ?
पुराने चुम्बन
गुसलख़ाने के शीशे पर जमी भाप
जिनसे ज़माने बीते तुम मिली नहीं
वे सारे स्कूली गीत
आवाज़ में क्या है तुम्हारी, जानती हो ?
घर के भीतर का बिखराव
अपने दोनों हाथों को सिर के इर्द-गिर्द फेरते हुए
अपनी तन्हाई को संवार रही हो गोया
आवाज़ में क्या है तुम्हारी, जानती हो ?
वे शब्द जो तुमने कहे होंगे
हो सकता है वे बातें कोई बड़ी हैसियत नहीं रखतीं
लेकिन इस वक़्त अभी
वे सारी बातें किसी यादगार-सी खड़ी हैं
आवाज़ में क्या है, जानती हो ?
वे बातें जो तुम कह नहीं सकीं
मूल तुर्की भाषा से अनुवाद : निशान्त कौशिक