http://kavitakosh.org/kk/api.php?action=feedcontributions&user=Bhagirath+Choudhary&feedformat=atomKavita Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T09:22:54Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A0_%E0%A4%AA%E0%A5%88_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%88_/_%E0%A4%97%E0%A4%81%E0%A4%97&diff=292426मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै / गँग2021-11-11T10:02:41Z<p>Bhagirath Choudhary: </p>
<hr />
<div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=गँग <br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
[[Category:सवैया]]<br />
<poeM><br />
मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।<br />
सुचि चीकनी चारु चुभी चित में, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥<br />
कवि 'गंग’ जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।<br />
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥<br />
<br />
सुंदर पिंगल नैन बण्या अन्नरूप अनार बणी छतियां ।<br />
केहर का सा लक बण्या गज गैयां की चाल चले मतियां ।<br />
कवि गंग कहे कोऊ पुण्य किया इस काठ के पास लगी छतियां ।।<br />
घन ताप बरसात सीत सही उद्यान के बीच खडी दिन रतियां ।<br />
मुख मुख चोंच लुहार गड़ी बीच करोती बहे मतियां ।<br />
तिरिया कहे सुण चातरक ये पुण्य किया तो काठ के पास लगी छतियां ॥<br />
</poeM></div>Bhagirath Choudharyhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%9D_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A5%80_(%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE)_/_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B&diff=292425बूझ पहेली (अंतर्लापिका) / अमीर खुसरो2021-11-11T09:41:40Z<p>Bhagirath Choudhary: </p>
<hr />
<div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=अमीर खुसरो<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<poem><br />
<br />
गोल मटोल और छोटा-मोटा, <br />
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।<br />
खुसरो कहे नहीं है झूठा, <br />
जो न बूझे अकिल का खोटा।।<br />
<br />
'''उत्तर - लोटा।'''<br />
<br />
<br />
श्याम बरन और दाँत अनेक, <br />
लचकत जैसे नारी।<br />
दोनों हाथ से खुसरो खींचे <br />
और कहे तू आ री।।<br />
<br />
'''उत्तर - आरी।''' <br />
<br />
हाड़ की देही उज् रंग, <br />
लिपटा रहे नारी के संग।<br />
चोरी की ना खून किया <br />
वाका सर क्यों काट लिया।<br />
<br />
'''उत्तर - नाखून।'''<br />
<br />
बाला था जब सबको भाया, <br />
बड़ा हुआ कुछ काम न आया।<br />
खुसरो कह दिया उसका नाव, <br />
अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - दिया।'''<br />
<br />
नारी से तू नर भई <br />
और श्याम बरन भई सोय।<br />
गली-गली कूकत फिरे <br />
कोइलो-कोइलो लोय।।<br />
<br />
'''उत्तर - कोयल।'''<br />
<br />
एक नार तरवर से उतरी, <br />
सर पर वाके पांव<br />
ऐसी नार कुनार को, <br />
मैं ना देखन जाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - मैंना।'''<br />
<br />
सावन भादों बहुत चलत है <br />
माघ पूस में थोरी।<br />
अमीर खुसरो यूँ कहें <br />
तू बुझ पहेली मोरी।।<br />
<br />
'''उत्तर - मोरी (नाली)'''<br />
<br />
वह आये तब शादी होय<br />
उस बिन दूजा और न कोय<br />
मीठे लागे बाके बोल<br />
क्या सखी साजन नहीं सखि ढोल॥<br />
<br />
'"उत्तर - ढोल'"<br />
<br />
------------<br />
यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों। <br />
</poem></div>Bhagirath Choudharyhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%9D_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A5%80_(%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE)_/_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B&diff=292424बूझ पहेली (अंतर्लापिका) / अमीर खुसरो2021-11-11T09:41:03Z<p>Bhagirath Choudhary: </p>
<hr />
<div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=अमीर खुसरो<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<poem><br />
<br />
गोल मटोल और छोटा-मोटा, <br />
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।<br />
खुसरो कहे नहीं है झूठा, <br />
जो न बूझे अकिल का खोटा।।<br />
<br />
'''उत्तर - लोटा।'''<br />
<br />
<br />
श्याम बरन और दाँत अनेक, <br />
लचकत जैसे नारी।<br />
दोनों हाथ से खुसरो खींचे <br />
और कहे तू आ री।।<br />
<br />
'''उत्तर - आरी।''' <br />
<br />
हाड़ की देही उज् रंग, <br />
लिपटा रहे नारी के संग।<br />
चोरी की ना खून किया <br />
वाका सर क्यों काट लिया।<br />
<br />
'''उत्तर - नाखून।'''<br />
<br />
बाला था जब सबको भाया, <br />
बड़ा हुआ कुछ काम न आया।<br />
खुसरो कह दिया उसका नाव, <br />
अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - दिया।'''<br />
<br />
नारी से तू नर भई <br />
और श्याम बरन भई सोय।<br />
गली-गली कूकत फिरे <br />
कोइलो-कोइलो लोय।।<br />
<br />
'''उत्तर - कोयल।'''<br />
<br />
एक नार तरवर से उतरी, <br />
सर पर वाके पांव<br />
ऐसी नार कुनार को, <br />
मैं ना देखन जाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - मैंना।'''<br />
<br />
सावन भादों बहुत चलत है <br />
माघ पूस में थोरी।<br />
अमीर खुसरो यूँ कहें <br />
तू बुझ पहेली मोरी।।<br />
<br />
'''उत्तर - मोरी (नाली)'''<br />
<br />
वह आये तब शादी होय<br />
उस बिन दूजा और न कोय<br />
मीठे लागे बाके बोल<br />
क्या सखी साजन नहीं सखि ढोल॥<br />
<br />
"'उत्तर - ढोल"'<br />
<br />
------------<br />
यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों। <br />
</poem></div>Bhagirath Choudharyhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%9D_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A5%80_(%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE)_/_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B&diff=292423बूझ पहेली (अंतर्लापिका) / अमीर खुसरो2021-11-11T09:39:57Z<p>Bhagirath Choudhary: </p>
<hr />
<div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=अमीर खुसरो<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<poem><br />
<br />
गोल मटोल और छोटा-मोटा, <br />
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।<br />
खुसरो कहे नहीं है झूठा, <br />
जो न बूझे अकिल का खोटा।।<br />
<br />
'''उत्तर - लोटा।'''<br />
<br />
<br />
श्याम बरन और दाँत अनेक, <br />
लचकत जैसे नारी।<br />
दोनों हाथ से खुसरो खींचे <br />
और कहे तू आ री।।<br />
<br />
'''उत्तर - आरी।''' <br />
<br />
हाड़ की देही उज् रंग, <br />
लिपटा रहे नारी के संग।<br />
चोरी की ना खून किया <br />
वाका सर क्यों काट लिया।<br />
<br />
'''उत्तर - नाखून।'''<br />
<br />
बाला था जब सबको भाया, <br />
बड़ा हुआ कुछ काम न आया।<br />
खुसरो कह दिया उसका नाव, <br />
अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - दिया।'''<br />
<br />
नारी से तू नर भई <br />
और श्याम बरन भई सोय।<br />
गली-गली कूकत फिरे <br />
कोइलो-कोइलो लोय।।<br />
<br />
'''उत्तर - कोयल।'''<br />
<br />
एक नार तरवर से उतरी, <br />
सर पर वाके पांव<br />
ऐसी नार कुनार को, <br />
मैं ना देखन जाँव।।<br />
<br />
'''उत्तर - मैंना।'''<br />
<br />
सावन भादों बहुत चलत है <br />
माघ पूस में थोरी।<br />
अमीर खुसरो यूँ कहें <br />
तू बुझ पहेली मोरी।।<br />
<br />
'''उत्तर - मोरी (नाली)'''<br />
<br />
वह आये तब शादी होय<br />
उस बिन दूजा और न कोय<br />
मीठे लागे बाके बोल<br />
क्या सखी साजन नहीं सखि ढोल॥<br />
<br />
"उत्तर - ढोल"<br />
<br />
------------<br />
यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों। <br />
</poem></div>Bhagirath Choudharyhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0_%E0%A5%AD&diff=292422कबीर दोहावली / पृष्ठ ७2021-11-11T09:32:45Z<p>Bhagirath Choudhary: </p>
<hr />
<div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार=कबीर<br />
}}<br />
{{KKPageNavigation<br />
|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ६ <br />
|आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ८ <br />
|सारणी=दोहावली / कबीर<br />
}}<br />
{{KKCatDoha}}<br />
<poem><br />
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । <br />
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ <br />
<br />
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । <br />
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ <br />
<br />
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । <br />
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ <br />
<br />
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । <br />
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ <br />
<br />
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । <br />
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ <br />
<br />
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <br />
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ <br />
<br />
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । <br />
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ <br />
<br />
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । <br />
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ <br />
<br />
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । <br />
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ <br />
<br />
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । <br />
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ <br />
<br />
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । <br />
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ <br />
<br />
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । <br />
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ <br />
<br />
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । <br />
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ <br />
<br />
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । <br />
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ <br />
<br />
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । <br />
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ <br />
<br />
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । <br />
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ <br />
<br />
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । <br />
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ <br />
<br />
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । <br />
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ <br />
<br />
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । <br />
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ <br />
<br />
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । <br />
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ <br />
<br />
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । <br />
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ <br />
<br />
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । <br />
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ <br />
<br />
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । <br />
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ <br />
<br />
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । <br />
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ <br />
<br />
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । <br />
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ <br />
<br />
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । <br />
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ <br />
<br />
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । <br />
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ <br />
<br />
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । <br />
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ <br />
<br />
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । <br />
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ <br />
<br />
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । <br />
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ <br />
<br />
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । <br />
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ <br />
<br />
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । <br />
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ <br />
<br />
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । <br />
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ <br />
<br />
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । <br />
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ <br />
<br />
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । <br />
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ <br />
<br />
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । <br />
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ <br />
<br />
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । <br />
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ <br />
<br />
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । <br />
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ <br />
<br />
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । <br />
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ <br />
<br />
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ <br />
<br />
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । <br />
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ <br />
<br />
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । <br />
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ <br />
<br />
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । <br />
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ <br />
<br />
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । <br />
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ <br />
<br />
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । <br />
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ <br />
<br />
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । <br />
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ <br />
<br />
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । <br />
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ <br />
<br />
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । <br />
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ <br />
<br />
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । <br />
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ <br />
<br />
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । <br />
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ <br />
<br />
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । <br />
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ <br />
<br />
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । <br />
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ <br />
<br />
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । <br />
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ <br />
<br />
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । <br />
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ <br />
<br />
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । <br />
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ <br />
<br />
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । <br />
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ <br />
<br />
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । <br />
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ <br />
<br />
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ <br />
<br />
<br />
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । <br />
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ <br />
<br />
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । <br />
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ <br />
<br />
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । <br />
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ <br />
<br />
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । <br />
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ <br />
<br />
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । <br />
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ <br />
<br />
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । <br />
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ <br />
<br />
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । <br />
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ <br />
<br />
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । <br />
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ <br />
<br />
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । <br />
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ <br />
<br />
॥ संगति पर दोहे ॥ <br />
<br />
<br />
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । <br />
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ <br />
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एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । <br />
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ <br />
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कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । <br />
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ <br />
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मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । <br />
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ <br />
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साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । <br />
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ <br />
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साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । <br />
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ <br />
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साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । <br />
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ <br />
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गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । <br />
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ <br />
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संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । <br />
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ <br />
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भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । <br />
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ <br />
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तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । <br />
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ <br />
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काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । <br />
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ <br />
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कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । <br />
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ <br />
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मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । <br />
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ <br />
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ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । <br />
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥<br />
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साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । <br />
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ <br />
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ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । <br />
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ <br />
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जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । <br />
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ <br />
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दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । <br />
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ <br />
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जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । <br />
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ <br />
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प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । <br />
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ <br />
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कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । <br />
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ <br />
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सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । <br />
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ <br />
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तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । <br />
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ <br />
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मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । <br />
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ <br />
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लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । <br />
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ <br />
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साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । <br />
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ <br />
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संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । <br />
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ <br />
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तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । <br />
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ <br />
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साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । <br />
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ <br />
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संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । <br />
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ <br />
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चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । <br />
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ <br />
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सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । <br />
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ <br />
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॥ सेवक पर दोहे ॥ <br />
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सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । <br />
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ <br />
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तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । <br />
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ <br />
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दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरदय होय।<br />
सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥701॥<br />
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भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद ।<br />
जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥702॥<br />
[[कबीर दोहावली / पृष्ठ ७|अगला भाग >>]]</div>Bhagirath Choudhary