http://kavitakosh.org/kk/api.php?hidebots=1&days=30&limit=50&target=%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80%3A%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4&action=feedrecentchanges&feedformat=atomKavita Kosh - "श्रेणी:गीत" से जुड़े बदलाव [hi]2024-03-29T10:22:48Zपृष्ठ से जुड़े बदलावMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B8_%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A5%8B_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304027&oldid=0दिवस न माँगो / राहुल शिवाय2024-03-23T10:55:30Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
पास तुम्हारे जाने पर यह डर लगता है<br />
वापस लौटूँगा तो कितना खल जाएगा<br />
<br />
कहाँ द्वारिका के पथ में<br />
वृंदावन आया<br />
मरुस्थलों के जीवन में<br />
कब सावन आया<br />
<br />
चार पलों में सदियों का सुख जी लेगें हम<br />
लेकिन युग जैसा फिर अपना पल जाएगा<br />
<br />
पूर्ण चन्द्र की चाह लिए <br />
हम जिये अमावस<br />
हृदय ताप से व्यथित रहा<br />
आँखों का पावस<br />
<br />
ऐसे में सोई पीड़ाएँ कौन जगाए <br />
शायद! दूर रहेंगे तो यह टल जाएगा<br />
<br />
स्वर्णिम आभाओं के ये <br />
अभिशापित सपने <br />
कितनी देर रहेंगे <br />
इन आँखों के अपने<br />
<br />
संध्या के परिदृश्य दृष्टि में तैर रहे हैं<br />
ऐसे में यह दिवस न माँगो, ढल जायेगा<br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%AE_%E0%A4%B9%E0%A5%8B_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304026&oldid=0और तुम हो / राहुल शिवाय2024-03-23T10:54:29Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
खिलखिलाती <br />
धूप है मन की सतह पर<br />
एक कुहरीली सुबह है<br />
और तुम हो<br />
<br />
इस शिशिर में भी<br />
सुखों के भार से<br />
कंधे झुके हैं<br />
जो नयन थे<br />
सोंठ जैसे<br />
पुन: अदरक हो चुके हैं<br />
<br />
दृष्टि में नव-उत्सवों के <br />
रंग भरती <br />
आज रंगीली सुबह है<br />
और तुम हो<br />
<br />
पढ़ चुकी है<br />
रात हरसिंगार की<br />
सारी कहानी<br />
जी रही<br />
ईंगुर सजाकर <br />
नये जीवन की निशानी <br />
<br />
इस प्रणय को भोर का<br />
तारा दिखाती <br />
एक सपनीली सुबह है<br />
और तुम हो<br />
<br />
याद वे दिन<br />
आ रहे हैं<br />
तुम नहीं थे, बस शिशिर था<br />
बीतता था हर प्रहर<br />
मन में कहीं पर<br />
स्वयं थिर था<br />
<br />
चाय की हैं चुस्कियाँ<br />
अब अक्षरों पर<br />
साथ में गीली सुबह है<br />
और तुम हो<br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%88%E0%A4%A0%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A5%88_%E0%A4%85%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304025&oldid=0बैठा है अख़बार / राहुल शिवाय2024-03-23T10:52:38Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
एक चाय के<br />
इंतज़ार में<br />
बैठा है अख़बार<br />
<br />
खोज रही हैं<br />
कलियाँ कब से<br />
प्यारा-सा स्पर्श <br />
करी पत्तियाँ <br />
व्याकुल हैं<br />
रचने को स्वाद-विमर्श <br />
<br />
धीमे-धीमे <br />
बीत रहा है<br />
हम सब का इतवार<br />
<br />
खिड़की के<br />
पर्दाें से तय थी<br />
आज तुम्हारी बात<br />
मिलने को <br />
आतुर है छत पर<br />
तुमसे नवल प्रभात<br />
<br />
ताक रहे हैं<br />
पंथ तुम्हारा<br />
आँगन, छत, दीवार <br />
<br />
इस घर के <br />
कोने-कोने में<br />
पाया तुमने मित्र<br />
पर मेरी इन<br />
आँखों में भी <br />
जीवित एक चरित्र<br />
<br />
मेरी छुट्टी <br />
का भी तुमपर<br />
थोड़ा है अधिकार।<br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304024&oldid=0मेरे गीत सँभाले रखना / राहुल शिवाय2024-03-23T10:51:17Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
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<poem><br />
मेरे गीत सँभाले रखना <br />
गीत न मेरे काम आ सके, <br />
ऐसा अवध रहा जीवन भर <br />
जहाँ न वापस राम आ सके<br />
<br />
दर्द, विरह, आँसू, तन्हाई <br />
किसे नहीं है <br />
चाहा मैंने<br />
मेरे घावों से तो पूछो <br />
किसको नहीं <br />
सराहा मैंने<br />
<br />
अनगिन पत्र लिखे जीवनभर<br />
लौट नहीं पैगाम आ सके<br />
<br />
मेरे गीत अहिल्या बनकर <br />
खोज रहे कबसे<br />
पग-चन्दन <br />
मेरे गीत किसी शबरी-सा<br />
चाह रहे <br />
करना अभिनंदन <br />
<br />
बहुत तपे हैं ये जीवन भर<br />
ज़रा देखना शाम आ सके<br />
<br />
गीत भटकता जीवन जिसने <br />
पाषाणों में <br />
प्रान भरा है<br />
जिसकी धाराओं पर अबतक <br />
चोटों से <br />
हर घाव हरा है <br />
<br />
पर इनका तो ध्येय यही है-<br />
कभी नहीं विश्राम आ सके<br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%9D%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304023&oldid=0कौन संझा दीप बारे / राहुल शिवाय2024-03-23T10:50:32Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
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<poem><br />
इस हृदय की देहरी सूनी पड़ी है<br />
बिन तुम्हारे कौन संझा दीप बारे<br />
<br />
सिलवटों के मौन अब<br />
कितने मुखर हैं<br />
कौन तुम बिन पर इन्हें आकर सुनेगा<br />
ले रही हैं चेतनाएँ<br />
भी उबासी <br />
कौन इनको कामना के पुष्प देगा<br />
<br />
तोड़कर प्रतिबंध अब अनहोनियों का<br />
कौन आशंकित विचारों को बुहारे<br />
<br />
तोड़ अन्विति नेह से<br />
कब तक जिएँगे<br />
प्राण भी नवप्राण पाना चाहते हैं<br />
जूट में अभिलाष <br />
हरसिंगार बनकर<br />
नेह-चूड़ामणि सजाना चाहते हैं<br />
<br />
वेदनाएँ, वेद की बनकर रिचाएँ<br />
कर रहीं अर्पित तुम्हें अधिकार सारे<br />
<br />
यह सकल जीवन नहीं है <br />
द्यूत जिसपर<br />
हार जाएँ हम प्रणय की आस्थाएँ<br />
हम नहीं अध्याय वो <br />
जो शेष होकर<br />
बाँचते जाएँ सतत अंतरकथाएँ<br />
<br />
प्रेम गीता-सार बन सम्मुख खड़ा है<br />
क्यों नहीं फिर बढ़ रहे हैं पग तुम्हारे<br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%AE_%E0%A4%B9%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A5%8C%E0%A4%9F_%E0%A4%86%E0%A4%8F_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=304022&oldid=0तुम ही लौट आए / राहुल शिवाय2024-03-23T10:49:58Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
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<poem><br />
यह नदी<br />
पग-पग महावर रच रही है<br />
इस नदी में पाँव क्या तुमने बढ़ाए?<br />
<br />
जन्म-जन्मों से<br />
तृषित हर याचना को<br />
पूर्ण तट की कामनाओं ने किया है<br />
कौन-सा<br />
उत्सव जगा है लहरियों में<br />
किस तरह यह ताप मन का हर लिया है<br />
<br />
इस हृदय का<br />
कौन अभिनंदन करेगा<br />
यों लगा जैसे कि तुम ही लौट आए।<br />
<br />
तोड़ हठ लहरें<br />
बढ़ीं मुझ ओर कैसे<br />
क्या इन्हें पुरवाइयों ने पत्र भेजे<br />
किस तरह<br />
सम्पर्क में वे आ गये हैं<br />
जो अलक्षित भाव थे हमने सहेजे<br />
<br />
तुम कहो<br />
संवाद के ये कुशल-कौशल<br />
कमल-कोषों को भला किसने सिखाये? <br />
<br />
सांझ होते <br />
इस नदी की हर लहर सँग<br />
नृत्य करती चाँदनी की भंगिमाएँ<br />
रूप के सारे कथानक <br />
भी वही हैं<br />
हैं तुम्हारे ही सदृश सारी कलाएँ<br />
<br />
यह रजत नूपुर पहन<br />
इस चाँदनी ने<br />
आस के दीपक भला क्यों जगमगाए? <br />
</poem></div>Rahul Shivayhttp://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8_/_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9_%27%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%BE%27&diff=303805&oldid=0उतर आया फागुन / अनामिका सिंह 'अना'2024-02-28T16:31:57Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना'<br />
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<poem><br />
फूले हैं कचनार <br />
उतर आया फागुन,<br />
खोले पंख हज़ार <br />
उतर आया फागुन ।<br />
<br />
हुई गुनगुनी धूप <br />
चढ़ा कुछ पारा है,<br />
किरणों ने सूरज का <br />
प्रेम पसारा है ।<br />
छज्जे-छज्जे बढ़े <br />
गुलाबी पन्ने हैं,<br />
गुपचुप खींचे गए <br />
प्रेम के कन्ने हैं ।<br />
<br />
देहरी आँगन द्वार<br />
उतर आया फागुन ।<br />
<br />
खेतों-खेतों आस <br />
उमग पियराई है,<br />
मेड़ों-मोड़ों मिलती <br />
दिखे मिताई है ।<br />
शाख-शाख पर बौर <br />
आँख में डोरे हैं,<br />
जगे चाह के सपन <br />
कुँआरे कोरे हैं ।<br />
<br />
सब पर मन्तर मार <br />
उतर आया फागुन ।<br />
<br />
कुदरत ने क्या सोच <br />
रंग यह घोला है,<br />
दिशा-दशा में <br />
फागुन-फागुन रोला है ।<br />
इसके चलते <br />
हर शोखी को पंख लगे,<br />
कैसा साहूकार <br />
सभी मन अचक ठगे ।<br />
<br />
लेकर लाल बुखार <br />
उतर आया फागुन ।<br />
</poem></div>अनिल जनविजय