अक्रूर ब्रज आगमन / सूरदास


कंस नृपति अक्रूर बुलाये ।
बैठि इकंत मंत्र दृढ़ कीन्हौ, दोऊ बंधु मँगाये ॥
कहूँ मल्ल, कहुँ गज दै राखे, कहूँ धनुष, कहुँ वीर ।
नंद महर के बालक मेरैं करषत रहत सरीर ॥
उनहिं बुलाइ बीच ही मारौ, नगर न आवन पावैं ।
सूर सुनत अक्रूर कहत, नृप मन-मन मौज बढ़ावै ॥1॥

उत नंदहिं सपनौ भयौ, हरि कहूँ हिराने ।
बल-मोहन कोउ लै गयौ, सुनि कै बिलखाने ॥
ग्वाल सखा रोवत कहैं, हरि तौ कहुँ नाहीं ।
संगहि सँग खेलत रहे, यह कहि पछिताहीं ॥
दूत एक संग लै गयौ, बलराम कन्हाई ।
कहा ठगोरी सी करी, मोहिनी लगाई ॥
वाही के दोउ ह्वै गए, हम देखत ठाढ़े ।
सूरज प्रभु वै निठुर ह्वै, अतिहिं गए गाढ़ै ॥2॥

सुफलक-सुत हरि दरसन पायौ ।
रहि न सक्यौ रथ पर सुख-व्याकुल , भयौ वहै मन भायौ ॥
भू पर दौरि निकट हरि आयौ, चरननि चित्त लगायौ ।
पुलक अंग, लोचन जल-धारा, श्रीपद सिर परसायौ ॥
कृपासिंधु करि कृपा मिले हँसि, लियौ भक्त उर लाइ ।
सूरदास यह सुख सोइ जानै, कहौं कहा मैं गाइ ॥3॥

चलन चलन स्याम कहत, लैन कोउ आयौ ।
नंद-भवन भनक सुनी, कंस कहि पठायौ ॥
ब्रज की नारि गृह बिसारि , ब्याकुल उठि धाईं ।
समाचार बूझन कौं, आतुर ह्वै आईं ॥
प्रीति जानि , हेत मानि, बिलखि बदन ठाढ़ीं ।
मानहु वै अति विचित्र , चित्र लिखी काढ़ी ॥
ऐसी गति ठौर-ठौर, कहत न बनि आवै ।
सूर स्याम बिछुरैं , दुख-बिरह काहि भावै ॥4॥

चलत जानि चितवतिं ब्रज-जुबती, मानहु लिखीं चितेरैं ।
जहाँ सु तहाँ एकटक रहि गईं, फिरत न लोचन फेरैं ॥
बिसरि गई गति भाँति देह की, सुनति न स्रवननि टेरैं ।
मिलि जु गईं मानौ पै पानी , निबरतिं नहीं निबेरैं ॥
लागीं संग मतंग मत्त ज्यौं, घिरति न कैसैंहुँ घेरैं ।
सूर प्रेम-आसा अंकुस जिय, वै नहिं इत-उत हेरें ॥5॥

(मेरे) कमलनैन प्राननि तैं प्यारे ।
इन्है कहा मधुपुरी पठाऊँ, राम कृष्न दोऊ जन बारे ॥
जसुदा कहै सुनौ सुफलक-सुत, मैं इन बहुत दुषनि सौं पारे ।
ये कहा जानै राज सभा कौं, ये गुरुजन बिप्रहुँ न जुहारे ॥
मथुरा असुर समूह बसत है, कर-कृपान, जोधा हत्यारे ।
सूरदास ये लरिका दोऊ, इन कब देखे मल्ल-अखारे ॥6॥

जसमति अति हीं भई बिहाल ।
सुफलक सुत यह तुमहिं बूझियत, हरत हमारे बाल ॥
ये दोऊ भैया जीवन हमरे, कहति रोहिनी रोइ ।
धरनि गिरत उठति अति ब्याकुल, कहि राखत नहिं कोइ ॥
निठुर भए जब तैं यह आयौ, घरहू आवत नाहिं ।
सूर कहा नृप पास तुम्हारौ, हम तुम बिनु मरि जाहिं ॥7॥

सुनै हैं स्याम मधुपुरी जात ।
सकुचनि कहि न सकति काहू सौं, गुप्त हृदय की बात ॥
संकित बचन अनागत कोऊ, कहि जु गयौ अधरात ।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, कब उठि देखौं प्रात ॥
नंद नँदन तौ ऐसौ लागे, ज्यौ जल पुरइनि पात ।
सूर स्याम सँग तैं बिछुरत हैं, कब ऐहैं कुसलात ॥8॥

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