आसमाँ / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं आसमाँ ले के आया था
तुमने बाहों को फैलाया ही नहीं

मैं रातभर सितारे बनता रहा
तुमने पलकों को उठाया ही नहीं

क्या शिकायत कि शाम नहीं देखी
तुमने खिड़की का परदा हटाया ही नहीं

कोई चेहरा मायूस नहीं था यहाँ
तुमने किसी के लिए मुस्कुराया ही नहीं

सर तो हजार झुके थे शहर में
किसी सर को तुमने झुका समझा ही नहीं

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