किश्तें / स्वप्निल श्रीवास्तव

मेरे पास मूल पूँजी बहुत कम थी
इसलिए जो कुछ मिला वह किश्तों
में मिला

मकान ख़रीदा तो गाड़ी ख़रीदने की
हैसियत न रही

प्रेम भी मुझे मुफ़्त में नही मिला
उसके किेए भी मुझे किश्तें
अदा करनी पड़ी थीं
जिस माह विलम्बित हो जाती थीं किश्तें
बढ़ जाता था ब्याज
कभी - कभी किश्तें दुगुनी हो
जाती थी

यह सब संगदिल महाजन का कमाल था
वह मुझे ज़रा सी भी रियायत नही
देता था

जो चीज़ें मुझे सहज मिल जानी थी
उसके लिए लम्बी प्रतीक्षाएँ करनी पड़ीं
वे समय के बाद मिली और उनका
लुत्फ़ जाता रहा

मनचाही ्चीज़ों का मिलना एक सपना था
इसलिए जो कुछ भी मेरे पास था
उसी से काम चलाना पड़ा

जीवन में बढ़ता गया उधार
मैं कई लोगो का ऋणी होता गया
मूल से भी ज़्यादा हो गया था ब्याज

ऋणमुक्त होने के लिए ख़र्च हो जाती
है ज़िन्दगी
लेकिन मैं निर्ब्याज होने की
कोशिश में लगा हुआ हूँ
ख़ुदा मुझे तौफ़ीक़ (हौंसला) दे ।

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