जीवन यात्रा / संजीव 'शशि'

छोटी सी जीवन यात्रा में,
क्या खोना, क्या पाना बाकी।
क्या जानूँ क्या होना बाकी॥

एक पूर्ण होती अभिलाषा,
दूजी मन में जगने लगती।
अजब निराली दुनियादारी,
भोले मन को ठगने लगती।
अपने व्याकुल से नयनों में,
कितने स्वप्न सँजोना बाकी।

सुख-दुख तो हैं आने-जाने,
जैसे हों पानी के रेले।
हम माटी के बने खिलौने,
ऊपरवाला हमसे खेले।
फिर कैसे बतलाएँ बोलो,
कितना हँसना-रोना बाकी।

माँ के आँचल को खो बैठे,
प्रिय का साथ रहेगा कब तक।
गीत प्रेम के गाता जाऊँ,
रहें प्राण अंतर में जब तक।
अब तो अपनी खातिर केवल,
धरती एक बिछौना बाकी।

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