नाटक / मधुछन्दा चक्रवर्ती

कभी दुप्पटा खींचा गया,
कभी छाती पर हाथ रखा गया,
कभी भूखी नज़रों ने घायल किया,
कभी बाल पकड़कर घसीटा गया।

हर बार ऐसे ही कुछ-न-कुछ होता है
हर बार कोई-न-कोई होती है शिकार
हर बार जलती है उसकी रूह,
और समाज सोता रहता है।
फिर शुरू होता है 'नाटक' समाज का।

निकल जाती है भीड़ नारे बाजी लेकर
भाषणबाजी, पत्रकारिता, संसद तक हंगामा,
उतरता है चरित्र समाज का इसमें।
कुछ बुद्धिजीवि धर्म को आड़ बना लेते हैं,
कुछ फ़िल्मी लोगों के घोषणापत्र आने लगते हैं।

पर क्या फ़र्क पड़ता है?
लुटती है किसी-न-किसी घर की पुनिता।
फिर क्यों नाटक की आवश्यकता है?
क्या जन्म से तुम अपने कुलदीपक को सीख नहीं दे सकते?
क्या उसके चाल-चलन पर प्रश्न नहीं कर सकते?

शायद तुम भी नहीं समझते हो,
ओ समाज के ठेकेदारों।
बेटी ही नहीं गयी किसी की,
पर बेटा भी गया है हाथ से निकल।

नाटक छोड़ों, सच में कुछ करो
बदलो सोच अपनी,
छोड़ों अकड़ अपनी,
तभी उभरेगी सच्चे मानवता कि छवि।

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