प्रत्याशा / हर्षिता पंचारिया

मुझसे प्रेम करने की कोई वजह नहीं थी तुम्हारे पास
जबकि तुमसे प्रेम करने की तमाम वजहें थी मेरे पास

सबसे बड़ी वजह थी तुम्हारा समर्पण
तुमने स्वयं को मुझ में इतना विलीन कर दिया था कि,
तुम्हारे पास तुम्हारा कुछ भी शेष रहा ही नहीं
कभी कभी जीवन में
"कुछ शेष ना बचना कितना विशेष हो जाता है"
यह प्रेम का प्रथम अध्याय था

प्रेम के अध्यायों को पढ़कर मैंने जाना कि,
तुम ही मेरा ओढ़ना बिछौना थे पर
तुम्हारे जाने के बाद
जब मैंने मुस्कान को ओढ़ा तो,
उस पर तुम्हारे वियोग की पीड़ा से भरी
कढ़ाई तक ना छुपा पाई

ख़ैर छुपाने को अँधेरा भी कहाँ छुपा पाता है रोशनी को,
जो आधी रात को उन जुगनूओं से छटा बिखेरती है
जिन्हें जंगली कीट समझ, मैंने उसी अरण्य में छोड़ा,
जहाँ आने के सभी मार्ग बंद थे

मार्ग अगर जबरिया बंद नहीं होते तो यक़ीन मानो
मैं उन मार्गों पर पुष्प बिछा देती पर,
स्त्रियों को कहाँ इतनी स्वतंत्रता होती है कि,
वह जीवन में चुन सकें दो मार्ग
जिस मार्ग से "कहार" लाए थे
उसी मार्ग से "काँधे" ले जाएँगे
बस इस "क" शब्द के मध्य झूलती "कौन" को ढूँढती
उस स्त्री के जीवन में कभी कोई मध्य मार्ग नहीं आता

नहीं आता उसके जीवन में बसंत ।
कि जिसके आने भर की प्रतीक्षा में काट सकें वह
पूस की ठंडी काली रातें

वे ठंडी काली रातें!
जिन्होंने अकारण ही लोक लाज की ख़ातिर जमा दीं
बर्फ़ की एक निश्चेत धवल मूरत
कि कोई "राम" आएगा
और छूकर लौटा देगा
इस समाज की सुषुप्त निर्जीव चेतना को
ताकि उसकी धवलता पर इंद्रधनुषी प्रत्याशा खिल सकें!

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