रवि सहचरी / ‘हरिऔध’

 चन्द्र बदनी तारकावलि शोभिता।
रंजिता जिसको बनाती है दिशा।
दिव्य करती है जिसे दीपावली।
है कहाँ वह कौमुदी वसना निशा।1।

क्या हुई तू लाल उसका कर लहू।
क्या उसी के रक्त से है सिक्त तन।
दीन हीन मलीन कितनों को बना।
क्यों हुआ तेरा उषा उत्फुल्ल मन।2।

वह बुरी काली कलूटी क्यों न हो।
क्यों न वह होवे भयंकरता भरी।
पर कलानिधिा का वही सर्वस्व है।
है वही कल कौमुदी की सहचरी।3।

मणि जटित करती गगन को है वही।
उड़ु विलसते हैं उसी में हो उदित।
है चकोरों को पिलाती वह सुधा।
है वही करती कुमुद कुल को मुदित।4।

है बिलसती तू घड़ी या दो घड़ी।
किन्तु वह सोलह घड़ी है सोहती।
है अगर मन मोहना आता तुझे।
तो रजनि है कम नहीं मन मोहती।5।

तू लसे पाकर परम कमनीयता।
लाभ कर बर ज्योति जाये जगमगा।
बंद आँखें खोल आलस दूर कर।
दे जगत के प्राणियों को तू जगा।6।

है उचित यह, है इसे चित मानता।
किन्तु है यह बात जी को खल रही।
देख करके दूसरे का वर विभव।
किसलिए तू इस तरह है जल रही।7।

लाल है तो तू भले ही लाल बन।
पर कभी मत क्रोध से तू लाल बन।
क्यों न मालामाल ही हो जाय तू।
पर किसी का मत कभी तू काल बन।8।

उस समुन्नति को भली कैसे कहें।
और को जो धूल में देवे मिला।
दूसरा जो फूल फल पाया न तो।
किसलिए मुखड़ा कभी कोई खिला।9।

देख कर तुझको परम अनुरंजिता।
था बिचारा प्यार से तू है भरी।
विधु विधायकता तुझे कैसे मिले।
जब प्रखर रवि की बनी तू सहचरी।10।

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