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"नौरंगिया / कैलाश गौतम" के अवतरणों में अंतर

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देवी देवता नहीं मानती, छक्का पंजा नहीं जानती  
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ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,  
 
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मरद निखट्टू जनख़ा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,
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उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती, संग-संग पीती
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गाँव गली की चर्चा में वह सुर्ख़ी-सी अख़बार की है
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नौरंगिया गंगा पार की है ।
  
मरद निखट्टू जनखा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,
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कसी देह औ’ भरी जवानी शीशे के साँचे में पानी
 
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सिहरन पहने हुए अमोले काला भँवरा मुँह पर डोले
उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती संग-संग पीती
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सौ-सौ पानी रंग धुले हैं, कहने को कुछ होठ खुले हैं
 
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अद्भुत है ईश्वर की रचना, सबसे बड़ी चुनौती बचना
गांव गली की चर्चा में वह सुर्खी सी अखबार की है
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जैसी नीयत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है ।
 
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नौरंगिया गंगा पार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है।
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जब देखो तब जांगर पीटे, हार न माने काम घसीटे
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जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे
 
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बिच्छू, गोंजर, साँप मारती, सुनती रहती विविध-भारती
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बिल्कुल है लाठी सी सीधी, भोला चेहरा बोली मीठी
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आँखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है ।
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नौरंगिया गंगा पार की है ।
  
बिच्छू गोंजर सांप मारती सुनती रहती विविध भारती
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ढहती भीत पुरानी छाजन, पकी फ़सल तो खड़े महाजन
 
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गिरवी गहना छुड़ा न पाती, मन मसोस फिर-फिर रह जाती
बिल्कुल है लाठी सी सीधी भोला चेहरा बोली मीठी
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कब तक आख़िर कितना जूझे, कौन बताए किससे पूछे
 
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जाने क्या-क्या टूटा-फूटा, लेकिन हँसना कभी न छूटा
आंखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है।
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पैरों में मंगनी की चप्पल, साड़ी नई उधार की है ।
 
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नौरंगिया गंगा पार की है।
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गिरवी गहना छुड़ा न पाती मन मसोस फिर फिर रह जाती
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जाने क्या-क्या टूटा-फूटा लेकिन हंसना कभी न छूटा।
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नौरंगिया गंगा पार की है।
 
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13:13, 4 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

देवी-देवता नहीं मानती, छक्का-पंजा नहीं जानती
ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,
मरद निखट्टू जनख़ा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,
उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती, संग-संग पीती
गाँव गली की चर्चा में वह सुर्ख़ी-सी अख़बार की है
नौरंगिया गंगा पार की है ।

कसी देह औ’ भरी जवानी शीशे के साँचे में पानी
सिहरन पहने हुए अमोले काला भँवरा मुँह पर डोले
सौ-सौ पानी रंग धुले हैं, कहने को कुछ होठ खुले हैं
अद्भुत है ईश्वर की रचना, सबसे बड़ी चुनौती बचना
जैसी नीयत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

जब देखो तब जाँगर पीटे, हार न माने काम घसीटे
जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे
बिच्छू, गोंजर, साँप मारती, सुनती रहती विविध-भारती
बिल्कुल है लाठी सी सीधी, भोला चेहरा बोली मीठी
आँखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

ढहती भीत पुरानी छाजन, पकी फ़सल तो खड़े महाजन
गिरवी गहना छुड़ा न पाती, मन मसोस फिर-फिर रह जाती
कब तक आख़िर कितना जूझे, कौन बताए किससे पूछे
जाने क्या-क्या टूटा-फूटा, लेकिन हँसना कभी न छूटा
पैरों में मंगनी की चप्पल, साड़ी नई उधार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है।