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हिरना आँखें / कैलाश गौतम

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|रचनाकार=कैलाश गौतम
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हिरना आँखें झील-झील
गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली-
मारे पिया असाढ़ में।।में ।।
मेहँदी पहन रही पुरवाई
हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे
आवारे पिया असाढ़ में।।में ।।
दूर कहीं बरसा है पानी
कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती
अनियारे पिया असाढ़ में।।में ।।
दिन भर देते हाथ बुलाते
आज मधुर बौछारों में
इंद्रधनुष की छाँह, और
उद्गारे पिया असाढ़ में।में ।।
</poem>
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