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परंपरा
एक ठिकाना है
कुंड में कूदकर
जीने का बहाना है

कुंड में जीना
कुंड का पानी पीना
जानते-बूझते
बेमौत मर जाना है

गहरा कुंड
गहरा नहीं है
कुछेक मुकाबले में
आदमी गहरा कहीं है

(१२.०४.१९७० - १९.०४.१९७० के ‘धर्मयुग’ में दिनकर की कविता पढ़कर)

रचनाकाल: १८-०४-१९७०