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15:38, 11 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
सुनते हो महाराज-
रामजी के कवि-
रामायण के रचयिता-
हमारे बाबा तुलसीदास।
देश अब बदल गया है
भारत-भूखंड खंडित हो गया है
एक ओर पाकिस्तान बन गया है
दूसरी ओर बर्मा निकल गया है
बीच में खड़ी रह गई है अकेली रीढ़
यही है हमारा देश हिन्दुस्तान
धर्म-निरपेक्ष प्रान्तों का राज्य
यहाँ लागू है संविधान
यहाँ शासन पर सवार हैं कांग्रेसजन
और अब सवार हैं जनता के लोग
तब था मुगल दल-बल का शासन
अब न वे हैं-न आप
बच रहे हैं उनके खानदानी-कुटुंबी-वंशज
चाकर-चोबदार-चौकीदार
अहलकार और ओहदेदार
काम में लगे, चौवक्ता नमाज पढ़ते,
मुहर्रम मनाते,
मर्सिया गाते
तहजीब के तजुर्बे आजमाते
गजलों में दिल जमाते और इश्क फरमाते
मुगलों के बाद आए अंग्रेज
उन्होंने चलाई अपनी रेल
भारत में रहा उनका अधिकार
देश हो गया परतंत्र
जनता हो गई दुबली
संस्कृति हो गई नकली
ज्ञान ने कर ली नौकरी
विवेक खाने लगा खली
शौर्य सो गया
अंतरात्मा का देवता खो गया
जिसने भी की चूँचपड़,
वह गया पकड़
ऐसी लगी नागपाश की जकड़
कि जीना हो गया दूभर
और तब होने लगी बगावत
गाँव-नगर से निकले लोग
खेत खलिहान से निकले मजदूर
विद्याविशारदों को आई अक्ल
और सबने किया एक साथ संगठन
तोड़ने लगे कानून
भरने लगे जेल
फिर क्रांति और शांति का हुआ उद्भव
और जग गई राजनीति की शक्ति
अंततोगत्वा हार गए अंग्रेज
यह है हमारा इतिहास
संक्षेप में हमारा विकास
सुनते हो महाराज!
इसे मैंने आपको बताया
नेहरू डिग्री कालेज की सभा में
मगर आप बोलते क्यों नहीं
इतिहास सुनकर मुँह खोलते क्यों नहीं
शताब्दियों के बाद भी वही मौन
वही धैर्य
आपके चेहरे पर विराजमान है
जानता हूँ कि
आपको राम की कथा प्यारी है
उसी उसी में आप डूबे हैं
हमारे लोक जीवन से ऊबे हैं
लेकिन देखता हूँ कि आप
न सुनकर भी शायद सुन रहे हैं
मेरे युग के इतिहास को गुन रहे हैं
और विचार-पर-विचार बुन रहे हैं
और मुझसे यह कह रहे हैं,
कि मैं कहूँ जो मुझे कहना है
अतएव मैं सुनाता हूँ
अपने युग की कथा
अपने देश के मानव-जीवन की व्यथा
जो मैं नहीं कह सकता सरकार से
फैले हुए अंधकार से
सुनते हो महाराज
हम जी रहे हैं
मनमानी धूप-हवा,
रूप चाँदनी
मुफ्त मिली पी रहे हैं
पानी मोल लेते
और बिजली मोल लेते हैं
विद्या मोल लेते हैं
और न्याय मोल लेते हैं
जन्म हो तो टैक्स अदा करते हैं
मरने पर मरने का टैक्स अदा करते हैं
काम-काज करने का-
चलने का-फिरने का-
आने का-जाने का-
खाना-दवाखाने का-
बेचने-बिकने-बिकाने का
खेत खरिहान का
टैक्स अदा करते हैं
सुनते हो महाराज,
ऐसे हम रहते हैं
आसमान सुनता नहीं हक को
धरती कुछ कहती नहीं हमसे
आग भी उठती और भभकती नहीं
लोक-जीवन दुर्गम है
नाग और नागफनी घेरे हैं
तक्षक ही तक्षक हैं
माँगने पर भीख नहीं, रोटी नहीं, कपड़ा नहीं,
सुविधा नहीं, साधन नहीं,
कुछ भी नहीं मिलता
शासन का, शिकायत पर,
आसन नहीं हिलता
फिर भी हम जीते हैं
मरे सही, मुर्दा सही जीते हैं
कैसे? आप पूछते हैं
देखिए न, आपकी रामायण लिए रहते हैं
जितनी देर पढ़ते हैं
उतनी देर जीते हैं
दंड, दमन, दुविधा और दहशत से
उतनी देर मुक्त बने रहते हैं,
रामकथा कहते हैं,
मानव बने रहते हैं,
लेकिन फिर, उसके बाद
बार-बार लूटपाट करते हैं
सत्य को कटार मार मौज से विचरते हैं
द्वेष, दंभ, दुराचार, अनाचार
यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ
बुरी तरह करते हैं
हाँ, तो अब महाराज
अब बोलिए न, इसका क्या इलाज?
समझा मैं
आपकी मुखाकृति से जान गया
औषध पहचान गया
धर्म-धैर्य, मौन, ओम शांति ही
निदान है
दुर्बल का-दंडित का-खंडित का-शोषित का
रचनाकाल: ३०-०७-१९७८, बाँदा