भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यमुना-वर्णन / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र }} <poeM>तरनि तनूजा तट तमाल तरु...)
 
छो
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
 
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
 
}}
 
}}
<poeM>तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
+
<poeM>
 +
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
 
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
 
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
 
 
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
 
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल लानि परम पावन फल लोभा॥
+
कै प्रनवत जल जानि  परम पावन फल लोभा॥
 +
मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि  सबै छाये रहत।
 +
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥ 
  
मनु आतप वारन तीर को, सिमिट सबै छाये रहत।
+
तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥
+
जल  मै  मिलिकै  नभ  अवनी लौं तानि तनावति॥
 +
होत  मुकुरमय  सबै  तबै  उज्जल  इक  ओभा ।
 +
तन  मन  नैन  जुदात  देखि  सुन्दर  सो  सोभा ॥
 +
सो को कबि जो छबि कहि , सकै  ता  जमुन नीर की ।
 +
मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥ 
  
कं तीर पर अमल कमल सोभित बहु भांतिन।
+
परत चन्र्द  प्रतिबिम्ब  कहूँ  जल मधि चमकायो ।
कहुं सैवालन मध्य कुमुदनी लग रहि पांतिन॥
+
लोल लहर लहि नचत कबहुँ  सोइ मन भायो॥
 +
मनु हरि दरसन हेत  चन्र्द  जल बसत सुहायो ।
 +
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
 +
कै रास रमन मैं  हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
 +
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥
  
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत निज सोभा।
+
कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
कै उमगे प्रिय प्रिया प्रेम के अनगिन गोभा॥
+
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
 +
मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
 +
कै तरंग  की  डोर  हिंडोरनि  करत  कलोलैं ।।
 +
कै  बालगुड़ी  नभ  में  उड़ी, सोहत  इत  उत  धावती ।
 +
कई  अवगाहत  डोलात कोऊ ब्रजरमनी  जल आवती ।।४।।
  
कै करिके कर बहु पीय को, टेरत निज ढिंग सोहई।
+
मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
कै पूजन को उपचार लै, चलति मिलन मन मोहई॥
+
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
 +
कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
 +
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
 +
कै  बहुत  रजत  चकई  चालत  कै  फुहार  जल  उच्छरत ।
 +
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।
  
 +
कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
 +
कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
 +
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
 +
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
 +
तट  पर  नाचत  मोर  बहु  रोर  बिधित  पच्छी  करत ।
 +
जल  पान  न्हान  करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।
 
</poeM>
 
</poeM>

21:19, 15 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥

तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥

परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥

कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।
जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।