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18:06, 2 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
तुम
वही थीं :
किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था-
ढलती उमर के दाग़ उसने धो दिये थे।
भूल थी
पर
बन गयी पहचान-
मैं भी स्मरण से
नहा आया।