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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आँखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊँचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए
इतने बड़े अध:पतन जितना मैं निम्नगा होऊँगाऔर और नीचे वालों की ख़ुशी<br>ओर चलता चला जाऊँगाउन आँखों उतना मैं अन्त में देखी जा सकती है<br>जो टंगी हुई हैं झरने पर<br>ऊँचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए<br>गिरना और मरना भी नदी हो जाए<br>जीवन फिर चल पड़े<br>समुद्र के पास होऊँगामज़ा आ जाए<br><br>जनसमुद्र के पास
एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊँगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊँचाई पा सकूँगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊँचाई
जितना मैं निम्नगा* होऊंगा<br>और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा<br>उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा<br>जनसमुद्र के पास<br><br> एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा<br>बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में<br>तब मैं अपनी कोई ऊँचाई पा सकूंगा<br>उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊँचाई<br><br> कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे<br>
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है।
</poem>
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