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{{KKRachna|रचनाकार: [[=मंगलेश डबराल]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=हम जो देखते हैं / मंगलेश डबराल]]}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ मैं चाहता हूँ कि स्पर्श बचा रहे वह नहीं जो कंधे छीलता हुआ आततायी की तरह गुज़रता है बल्कि वह जो एक अनजानी यात्रा के बाद धरती के किसी छोर पर पहुँचने जैसा होता है मैं चाहता हूँ स्वाद बचा रहे मिठास और कड़वाहट से दूर जो चीज़ों को खाता नहीं है बल्कि उन्हें बचाए रखने की कोशिश का एक नाम है एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है मसलन यह कि हम इंसान हैं मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे सड़क पर जो नारा सुनाई दे रहा है वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे जो फिर से एक उम्मीद पैदा करती है अपने लिए शब्द बचे रहें जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते प्रेम में बचकानापन बचा रहे कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा । (1993)