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"अव्यक्त की विकलता / उपेन्द्र कुमार" के अवतरणों में अंतर

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13:04, 11 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

जब भी मैं
चलता हूँ
पर्वतों और बादलों के संग
होता हुआ आह्लादित
तो मेरे भीतर कहीं
साथ-साथ लगती है चलने
एक कविता

बनो, पक्षियों
फूलों, पौधों, पेड़ों
पानी, बर्फ और अनेक चीजों की
विशालता भव्यता और सुन्दरता की
बताती वो बातें
जो न मैंने कहीं
होती हैं पढ़ी
न कभी होती हैं सोची
दिखाती दृश्य
ऐसे अनेक
जो अन्यथा छूटे ही रहते
मेरी दृष्टि की पहुँच से

कविता-यात्रा
यह रहती है चलती
तब भी
रुक जाता हूँ जब मैं
अंगों की शिथिलता
यंत्रों की विफलता का मारा
किसी पहाड़ की ढलान
घाटी की गोदी
चोटी के समतल में
अपनी व्यग्रता में
उठाता हूँ कलम
बारम्बार
इस अंतः सलिला को
बाहर लाने को
सबको बताने को
अपने गूँगे आनन्द को
सबके साथ मिल-बाँट खान को

परन्तु होता है
जो भी व्यक्त
लगता है बहुत बोना, असमर्थ, कांति-हीन
उन दिव्य अनुभूतियों के समक्ष
मैं खीझ-खीझ उठता हूँ
अपने पर
भाषा-सामर्थ्य और शब्द-ज्ञान पर
हो विवश
फिर-फिर
खोजता हूँ
नई भाषा, नया व्याकरण
नया शब्द-कोष

हे ईश्वर
यदि दोनों ही थी अनुभूति
तो फिर दी क्यों नहीं अभिव्यक्ति